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'नंगई' पश्चिम ने नहीं सिखाई

गुजरे हफ्ते नैशनल विमिन कमिशन की चेयरपर्सन ने लड़कियों को ठीक से कपड़े पहनने की नसीहत देते हुए कहा कि पश्चिमी संस्कृति की अंधी नकल से हमारी संस्कृति खराब हो रही है और ऐसे क्राइम (गुवाहाटी कांड) हो रहे हैं।

लड़कियों के ड्रेस कोड पर इस बयान के बाद एक बार फिर शोर मचा। यहां मुझे उस पर कुछ नहीं कहना। इस बयान ने मुझे जिन सवालों पर सोचने को मजबूर किया, वे हैं- पश्चिमी संस्कृति से हमारा क्या मतलब होता है? हम पश्चिम को कितना जानते हैं? क्या हमारी सोसायटी में जुर्म, रेप और करप्शन के जो वाकये हो रहे हैं, वे इसी की वजह से हैं?

जब हम यह कह रहे होते हैं, तब हमारे दिमाग में एक ऐसी दुनिया की इमेज होती है, जहां माफिया का राज चलता है, जहां बंदूक सबसे बड़ी ताकत है, जहां नंगापन सड़कों पर बिखरा रहता है, जहां औरतों के कपड़े उतारे जाते हैं, जहां पैसे से कुछ भी खरीदा जा सकता है.... थोड़े में कहें तो सेक्स, क्राइम, पैसे, लालच और भोग की बेशर्म दुनिया।



पश्चिम को लेकर यह ज्ञान हमें कहां से मिला? इसके तीन सोर्स हैं। एक तो मीडिया और हॉलिवुड, जिनमें अमेरिका की इमेज सेक्स और हिंसा में डूबी होती है। एक पूरी पीढ़ी है, जिसने प्लेबॉय के जरिए अमेरिका से रिश्ता जोड़ा। दुनिया को सबसे बड़ी सेक्स सिंबल हीरोइनें अमेरिका से मिलीं। कंप्यूटर गेम्स और इंटरनेट पॉर्न ने इस इमेज को और भी मजबूत किया है। लेकिन यह इसलिए है कि एक तो अमेरिका में कहने-दिखाने की जबर्दस्त आजादी है और दूसरे, सेक्स बिकता है। पश्चिम की इमेज का दूसरा हिस्सा, जिसमें दादागीरी, लालच और भोगवाद हावी हैं, हमारी उस तालीम से आया है, जो कोल्ड वॉर के दौरान सोवियत कैंप में होने की वजह से हमें लगातार दी जाती रही। हमारे लिए इस पर यकीन करना बहुत आसान था, क्योंकि गोरी चमड़ी वाली कौम हम पर भी राज कर चुकी थी। जापान में लाखों लोगों को एक बम से भून चुकी थी। उसी ने वियतनाम में कहर बरपाया था और वही पूरी दुनिया को रौंद डालने पर आमादा थी। हमारे लिए यह मानने की तमाम वजहें मौजूद थीं कि अगर हमने इस कल्चर को अपनाया तो हम भी हैवान बन जाएंगे, और अगर हममें हैवानियत के निशान दिख रहे थे, तो यह जरूर उसी से हमबिस्तर होने का नतीजा हो सकते थे। संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी।

कल्चर बहुत बड़ी चीज है, हमारे वजूद, पहचान और आत्मगौरव को साबित करने वाली अकेली चीज। लिहाजा वेस्टर्न कल्चर को लेकर यह सारी बहस दरअसल श्रेष्ठता की एक जंग थी, जिसमें हम ईस्टर्न कल्चर के सिपाही थे और ईस्टर्न कल्चर से हमारा मतलब महज भारतीय कल्चर से होता था। जैसा कि जंग का कायदा था, हमें दुश्मन को काले रंग से पोतना था और खुद को सफेद रंग से। वेस्टर्न कल्चर के बरक्स हमारे पास भारतीय कल्चर की एक साफ-सफ्फाक इमेज थी, जिसमें फैमिली वैल्यू, बड़ों का आदर, अतिथि का सम्मान, महिलाओं की इज्जत, त्याग की महिमा, भोग से नफरत, सादगी, सत्य वचन, न्याय, दया और ज्ञान की गरिमा जैसी बातें शामिल थीं। हम इसे धर्माचरण कहते थे और दावा करते थे कि हमारी सभ्यता सबसे पुरानी है। हमारी फिल्मों, साहित्य और प्रवचनों में यही सब दोहराया जाता था। अन्याय, हिंसा और पाप भी समाज में थे, लेकिन वे सिर्फ कंट्रास्ट दिखाने के लिए थे, ताकि सत्य की जीत साबित की जा सके।

इस तस्वीर में हम इतने प्यारे, सुंदर और पवित्र थे कि जब हिस्ट्री की सचाइयों से हमारा सामना होता था तो हम हकबका जाते थे। हमारे सामने वे संस्कृत टेक्स्ट आते थे, जिनमें दैवीय प्राणी सेक्स पर खुली चर्चा कर रहे होते थे। उनमें से कुछ तो व्यभिचारी भी होते थे। ऐसे साधु थे, जो सेक्स पर ग्रंथ लिखते थे और मंदिरों पर कामकला की तस्वीरें खुदी पाई जाती थीं। रति प्रसंग में महान कवि भी देवताओं का लिहाज नहीं करते थे। मदनोत्सव होते थे और होली के मौके पर ऐसी-ऐसी नंगई का रस लिया जाता था कि अंग्रेज भी शर्म से लाल हो जाएं।


जब ये सब बातें सामने आ रही थीं, तो समाज और इतिहास के जानकार बता रहे थे कि भारत में पुराने जमाने में महिलाओं की बराबरी और सेक्शुअल फ्रीडम का एक अनोखा दौर रहा है। यह तो हाल की बात है कि हम सेक्स को इतना दबा हुआ, शर्माया सा पाते हैं। और जहां तक हिंसा की बात थी, तो भारत भी अपने हिस्से के महाभारत, कलिंग और पानीपत निपटा चुका था। गांवों में दलितों को घोड़ी चढ़ने जैसी बातों के लिए मार दिया जा रहा था। शहरों में रेप की वारदात हर साल बढ़ती जा रही थीं। आजादी के फौरन बाद से घोटालों की ऐसी झड़ी लग गई थी कि जल्द ही हम दुनिया के सबसे करप्ट देशों में शुमार होने वाले थे।

हमारी सोच में जरूर कुछ गड़बड़ी थी। यह सब पश्चिम ने हमें नहीं सिखाया था, क्योंकि इसमें से काफी कुछ वहां था ही नहीं। हम गलत इमेजों के मायाजाल में खुद को भरमा रहे थे और पश्चिम वैसा नहीं था, जैसा हॉलिवुड में दिखता था, वैसे ही जैसे भारत बॉलिवुड जैसा नहीं था। वेस्टर्न कल्चर की हमारी सोच अधूरी और गलत थी। अपने घमंड में हमने कुछ ऐसी चीजों को पश्चिमी असर का नाम दे दिया था, जो उन्हें नीचा दिखा कर हमें श्रेष्ठता का सुख दे सकती थीं। यह इसलिए था कि और तमाम बातों में हम पश्चिम को मालिक और खुद को भिखारी पाते थे।

उस पिलपिले सुख को छोड़ने को हम आसानी से तैयार नहीं होने वाले, भले ही हम खुद हर बात में अंग्रेजों जैसे हो जाने के लिए भगदड़ मचा रहे हों।

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