क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु
देवताओं और दानवों
की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक
चरण की कहानियों
के रूप में देखा जा सकता है। सभ्यता के आरंभ से लेकर आज तक, हमारे
पूर्वजों की 300 से 500 पीढ़ियों ने मुँह-बोले शब्दों के माध्यम से ही अपने
बच्चों को इन घटनाओं के विषय में बार-बार बताया होगा। किन्तु
इस बीच उच्चारण में बदलाव के चलते, कहानियों के मूल शब्दों में
उसी तरह म्यूटेशन या परिवर्तन होते गए जैसे की हमारे जीन के डीएनए में होते रहते हैं।
शब्दों में हुए इन परिवर्तनों के कारण, अधिकतर कहानियों का मूल अर्थ, प्राचीन काल में आँखों-देखी
घटनाओं के वर्णन से पूरी तरह से बदल गया
होगा। मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक
राजेंद्र गुप्ता प्राचीन काल की स्वप्निल दुनिया में, पुरखों के साथ
एक और यात्रा पर निकले। और इस बार भगवान विष्णु एक क्षारी-सागर
या खारी-झील में दस ऍनाकोन्डाओं की शैया पर आराम करते दिख रहे हैं। विष्णु
जी बता रहे हैं कि यह विशाल सांप नागों का राजा
नागेंद्र है। पूरा विवरण आगे पढ़िए...
प्रतिदिन, जागते या सोते हुए, मैं टाइम मशीन में पहुँच जाता हूँ; और पुरातन काल
में घुमंतू पुरखों के समूहों में शामिल हो
कर एक नई यात्रा पर निकल पड़ता हूँ। शनिवार की रात है। मैं टीवी की नेशनल
जिओग्राफिक चैनल पर दक्षिण-अमेरिकी नाग एनाकोण्डा पर कार्यक्रम देख रहा हूँ। एनाकोण्डा
विश्व के सबसे बड़े नागों में से है। उसकी औसत लंबाई 6 मीटर या 20 फीट, और औसत वज़न 150 किलो होता है। वेनेजुयला विश्वविद्यालय के जीव-वैज्ञानिक
प्रोफेसर जीसस रिवास एनाकोण्डा पर अपनी अद्भुत खोजों के बारे में बता रहे हैं। प्रोफेसर
रिवास एनाकोण्डा के प्रजनन के विषय में समझा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि मैथुन से पहले
आठ से बारह नर-एनकोण्डा और एक मादा एनाकोण्डा आपस में लिपट जाते हैं, जिससे नागों का एक विशाल गुच्छा बन जाता है। नाग इसी अवस्था में औसत 14
दिनों तक आपस में लिपटे रहते हैं। दस नरों में केवल एक ही संभोग में सफल होता है। संभोग
कई घंटे चलता रहता है, लेकिन उस समय भी बाकी सभी नर-नाग भी मादा
नाग से लिपटे रहते हैं। प्रोफ॰ रिवास बता रहे हैं कि अनेक दिनों तक लगातार प्रणय और
संभोग में तल्लीन नागों के समूह को उनके पास बैठे, उनसे
छेड़-छाड़ कर रहे, उनका माप ले रहे, और
फोटो ले रहे जीव-वैज्ञानिकों की उपस्थिति से कोई फरक नहीं पड़ता (नीचे छवि-चित्र
देखिये)। इस बीच वैज्ञानिक माप लेने के लिए नागों को अलग करते हैं, पर नाग फिर आपस में लिपट जाते हैं।
वेनेजुआला के प्रो॰ रिवास एनाकोण्डा
को पकड़े हुए (सबसे ऊपर) और मैथुन-लीन
एनाकोण्डा के
गुच्छे की जांच करते हुए (ऊपर)
टीवी कार्यक्रम
देखते हुए मुझे नींद आ गयी है। और मैं एक बार फिर पुरखों के साथ यात्रा में आ पहुंचा
हूँ। इस बार मैं आज से 8000 वर्ष पहले के भारत में घूम रहा हूँ।
पुरखों के एक टोले के साथ मैं मध्य-भारत के सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों से
उत्तर भारत की ओर बढ़ रहा हूँ। हम कई दिन से सूखे मैदानों में चल रहे हैं। आज भी दिन
भर कहीं पीने का पानी नहीं मिला है। पूरा समूह प्यासा है। बच्चों और स्त्रियों का
तो बुरा हाल है। दूर पेड़ दिखाई दे रहे हैं। इसका अर्थ है कि यहाँ पानी भी होगा।
निराश दिलों में आशा का संचार हुआ। उमंग से पैर उठे और हम आगे बढ़े। दिन ढलने से
पहले ही हम जामुन वृक्षों के वन में आ पहुँचे है। वन के बीचों-बीच एक विशाल झील है।
झील में दूर-दूर तक कमल के विशाल फूल खिले हैं। कुछ-कुछ दक्षिण अमेरिका के अमेज़न
क्षेत्र में मिलने वाले विक्टोरिया-लिली जैसे। सभी जन पानी पीने के लिए दौड़ पड़े। पानी
कुछ क्षारी (खारी) है। लेकिन कई दिन से प्यासों के लिए यह खारी पानी अमृत से कम
नहीं।
भाषी बोली, “यह तो क्षारी-सागर है।
(संस्कृत, क्षार =
नमक; क्षारी = नमकीन, खारी; सागर = झील)
जीभा ने उसे टोका, “कई दिन से प्यासे
थे। अब इस क्षारी-सागर का पानी हम सभी के लिए माँ के दूध से कम नहीं। इसलिए, ओ मेरी प्यारी बहना, इसे क्षारी-सागर नहीं, क्षीर-सागर* कहो.”
*[भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार
भगवान विष्णु दूध के समुद्र क्षीर-सागर में निवास करते हैं। संस्कृत में क्षीर = दूध; क्षीर-सागर = दूध की झील]
निश्चय हुआ है कि आज की रात यहीं डेरा लगाया जाएगा। समूह के लोग झील
के आस-पास भोजन की तलाश में निकल पड़े। हम तट के साथ चल रहें हैं। अचानक एक विचित्र
और अद्भुत दृश्य देख कर सभी की साँसे और धड़कने रुक सी गयी है। झील में तट के एकदम
निकट, सघन कमल-दलों के बीचों-बीच लगभग दस-बारह विशाल नाग
आपस में गूँथे हुए है। नाग लगभग दस हाथ लंबे होंगे। उनकी मोटाई औसत मनुष्य की जंघा
जितनी। गुच्छे में आठ-दस नागों के सिर अलग दिखाई देते हैं,
पर शरीर आपस में एक दूसरे से अभिन्न हैं। हमारे पूरे समूह में से किसी ने भी कभी
ऐसे विशाल नाग न देखे है न ही कभी सुने हैं। हे भगवान! इन नागों से प्राणों की
रक्षा कैसे होगी? लेकिन आश्चर्य है, इन
दस नागों के गुच्छे के ऊपर एक युवक शांत भाव से आराम कर रहा है। उसे नागों का कोई
भय नहीं है। युवक का रंग आकाश में बादलों जैसा है। हमारे समूह में तो सभी जन अपने
शरीर पर पशुओं की खाल या वृक्षों की छाल ही लपेटते है। किन्तु इस युवक ने एक
चमकीला, मुलायम, पीले रंग का अद्भुत आवरण
शरीर के निचले भाग पर लपेटा हुआ है! युवक ने अपने शरीर पर कमल-नाल सहित एक बड़ा फूल
रखा हुआ है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है मानों कमल का एक फूल इस युवक की नाभी से
उग आया हो। यह पक्का है कि इस युवक ने नागों पर विजय प्राप्त कर ली है। शायद यह
युवक कोई मनुष्य नहीं हैं। वह देवता हो सकता है। नहीं, नहीं, शायद वह देवताओं का राजा है। यह सभी की रक्षा और देखभाल कर सकता है। आओ
इसी कि शरण में हो लें। वह नागों से हमारी भी रक्षा करेगा।
समूह के सभी लोग अनायास ही भूमि पर लेट कर नागों पर विजय पाने वाले
युवक का वंदन करते हैं।
“जय हो। आपकी जय हो।
“शान्ताकारम
भुजग शयनम, पद्मनाभम सुरेशम।
विश्वाधरम गगन सदृशम मेघ वर्णम शुभान्गम॥”
[“कमल-दलों के
केंद्र में, शांत भाव से नागों पर
आराम कर रहे, सुंदर शरीर वाले, आकाश के
मेघ जैसे रंग वाले, सभी की रक्षा और देखभाल करने वाले, हे देवों के राजा।” मैंने विष्णु स्तोत्र के इस प्रसिद्ध श्लोक के पहले
पद का लौकिक भावानुवाद किया है। यह पारंपरिक अनुवाद से भिन्न है। पारंपरिक अनुवाद
में पद्मनाभ का अर्थ है : 'जिसकी नाभी से कमाल उग आया है'; क्योंकि यह जीव-वैज्ञानिक दृष्टि
से असंभव है, अतः मैंने 'नाभ = केंद्र' अर्थ के आधार पर 'पद्मनाभ = कमल (दलों) के केंद्र' अनुवाद किया है। 'गगन सदृशम' का पारंपरिक अर्थ आकाश की तरह पूरे
विश्व में मौजूद है; मैंने लौकिक अर्थ के लिए 'गगन
सदृशम' और 'मेघ वर्णम' को एक साथ जोड़ कर इसका अर्थ 'आकाश
के बादलों के रंग वाला' माना है।]
अपना जय घोष सुन कर युवक ने आँखें खोली।
उसके सामने है सभी दिशाओं से भोजन–पानी के तलाश में उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों
में आने वाले आप्रवासियों का एक नया दल।
युवक के सामने यह पहली बार नहीं हुआ है।
वह जानता है कि लोग क्यों डरे हुए हैं। उसका हाथ अभय-मुद्रा में उठता है।
“मेरे देश में सभी अभय हैं। डरो नहीं। यह
नाग विषैला नहीं है। यहाँ अनेक प्रकार के विषैले नाग भी अवश्य हैं, किन्तु उनसे भी डरो नहीं। मेरे पास औषधीय पौधे हैं, जिन के प्रयोग से मुझे
विषैले नागों का विष नकारना आता है। इसलिए लोग मुझे विषनहि (विष + नहि) कहते हैं। नागों के राजा नागेंद्र जिस पर मैं
लेटा हुआ था, विषहीन नाग है। किन्तु सावधान, यह दंत-हीन नहीं हैं।
यहाँ यह जो मेरी नाग-शैया आप देख रहे हैं, यह एक नागेंद्र
नहीं, दस नागेंद्रों का समूह है। इस ‘दश-नाग स्थिति’ में नागेंद्र मैथुन में लीन
हैं। इस मौसम में इस पूरे देश के नागेंद्र
मैथुन में है। अभी कुछ सप्ताह यह इसी स्थिति में रहेंगे। इसलिए अभी डरो नहीं। संभोग
के बाद जब यह अलग-अलग हो जाएंगे, तब इनसे सावधान रहना होगा।
[एक क्षण को युवक की छवि नेशनल जिओग्राफिक चैनल टीवी पर देखे एनकोण्डा-शोधकर्ता की छवि में बदलने लगती है लेकिन फिर भगवान विष्णु की छवि में बदल जाती है]
“मैंने एक गरुड़ को पालतू बना लिया है। गरुड़
एक गाय-बैल जितनी विशाल चील है। उस पर सवार हो कर उड़ा जा सकता है। गरुड़ नागों को
खाता है। गरुड़ धीरे-धीरे इस प्रदेश के सभी नाग-नागेंद्रों को खा जाएगा।
मैं इसी विशाल क्षार-सागर में एक द्वीप पर
रहता हूँ। आप सब भी मेरे गाँव में रह सकते हो। यहाँ का पानी खारी है किन्तु इस
ग्रीष्म ऋतु में अन्य सभी दिशाओं में नदियाँ भी सूख गयी हैं। इस दिशा में, हमारे देश में भी झील का
पानी उड़ कर सूखने से खारी हो गया है। फिर भी यहाँ पानी की कोई कमी नहीं है। हमारे गाँव के लोग खेती करते हैं। वे अन्न
उगाते और खाते हैं। आप लोगों को खेती करना नहीं आता पर अगर आप यहीं बसना चाहो तो
आप भी हमारे गाँव में रह कर खेती करना सीख लेना। अभी सूरज छिपने को है। मैं जानता
हूँ कि संभवतः आपको अभी अन्न पसंद नहीं आएगा। बच्चे भूखे होंगे। जामुन-वृक्षों
वाले जंबू-द्वीप पर कंद-मूल-फल की कोई कमी नहीं है। आप अपनी पसंद का भोजन चुन लो। दिन
ढलने को है। बाकी बातें कल करेंगे।”
हमारे मुखिया ने हाथ जोड़ कर कहा:
“आपकी जय हो। आप हमें भोजन देने वाले ‘भोजवान’ हो। आप विष हरण करने वाले ‘विष-नहि-कर्ता’ हो।
हे भोजवान, आपकी जय हो।
हे विष-नहि-कर्ता, आपकी जय हो।
पूरे समूह ने ऊँचे स्वर में दोहराया,
“भोजवान विष-नहि-कर्ता की जय हो।”
विषनहि की सलाह मान कर,
सभी वयस्क लोग भोजन की तलाश में जुट गए। बच्चे खेल रहे थे। किन्तु सब बच्चों से
अलग, जीभा-भाषी केवल शब्दों से खेल रहीं थीं। उन्होने विषनही
के मुंह से अभी-अभी सुने कुछ नए शब्दों को दोहराना शुरू किया।
जीभा और भाषी
के इसी खेल को मनुष्यों की आने वाली पीढ़ियाँ सदियों
तक दोहराने वाली थीं। एक पीढ़ी से दूसरी और फिर अगली पीढ़ी तक जाते हुए शब्दों में हो
रहे क्रमिक परिवर्तन / म्यूटेशन से नए-नए शब्दों की रचना होने वाली थी...
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क्षारी सागर (खारी झील)
क्षीर सागर (दूध की झील)
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भुज्वान (भुज् + वान, संस्कृत, शाब्दिक अर्थ ‘जिसके पास बहुत भोजन
हो। किन्तु किसी संस्कृत कोश में यह शब्द नहीं है)
भुगवान
भगवान [मेरी लौकिक समझ में भगवान का मूल अर्थ भोजन देने वाला रहा होगा। मानव
सभ्यता के शुरू के दिनों में विष्णु जी और शिव जी की विलक्षण नेतृत्व क्षमता और
प्रसिद्धि के कारण इस शब्द का अर्थ बदल कर यशस्वी, प्रसिद्ध, सम्मानित, देवता, दिव्य आदि हो गया होगा]
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विष-नहि-कर्ता (संस्कृत, =
विष को नष्ट करने वाला)
विषनयि कर्ता
विषनिय कर्ता
विष्णु कर्ता
विष्णु शब्द की पारंपरिक
व्युत्पत्ति है : 'विश्व + अणु = जो विश्व में अणुओं की तरह हर कण में मौजूद है। किन्तु मेरी
लौकिक समझ में विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति होनी चाहिए : विष + नहि।
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विष्णु कर्ता (विष्णु + कर्ता; कर्ता = करने वाला)
विष्णु कर्ता
कर्ता
कर्दा
खर्दा
खयदा
खुदा خدا (उर्दू)
खोदा خدا (फ़ारसी)
गोदा
गोडा
गॉड god (भगवान के लिए अँग्रेज़ी शब्द)
शब्द की यह व्युत्पत्ति भाषा-विदों
की व्याख्या से एकदम भिन्न है।
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नागेन्द्र (संस्कृत, = नागों का राजा, शेषनाग, दस मुख वाला एक पौराणिक नाग जिसकी शैया
बना कर विष्णु सोते हैं।
नागेन्द्रन (तमिल, = नागों का राजा, शेषनाग)
नागोन्द्रन
नाकोन्द्रन
अनाइकोन्द्रन (तमिल शब्द जिसका अर्थ
हाथी को मरने वाला समझा जाता है)
हनाइकोन्द्रन
हेनाकोन्दे (17 वीं शताब्दी सिंहली, = व्हिप स्नेक, कोड़ा साँप ? किन्तु आज
के समय में सिंहली भाषा में किसी भी साँप को हेनाकोन्दे नहीं कहा जाता।
एनाकोण्डा (ऐसा माना जाता है कि यूरोपीय लोगों ने इस
शब्द को श्रीलंका में सीखा और जब उन्होंने दक्षिण अमेरिका के एक विशाल साँप पहली
बार देखा तो उसे यही सिंहली नाम दे दिया।
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नागेन्द्र (संस्कृत, = नागों का राजा, शेषनाग, दस मुख वाला एक पौराणिक नाग जिसकी शैया
बना कर विष्णु सोते हैं।
नाजेन्द्र (लैटिन में कोबरा को
नाजा कहते हैं)
नायेन्द्र
नयन्त
यनंत
अनंत (संस्कृत, =शेषनाग, शाब्दिक अर्थ अंतहीन)
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मैथुन
लीन दस अभिन्न एनाकोंडाओं के समूह के लिए इस लेख में नए संस्कृत शब्द दशनाग
शब्द की कल्पना कि गई है। संस्कृत में दशनाग
का शाब्दिक अर्थ दस-नाग है।
दशनाग
जशनाग
(संस्कृत में द > ज या ज > द बहुत सामान्य
बात है
शशनाग (ज > श )
शेषनाग (दस मुख
वाला एक पौराणिक नाग। विष्णु इस नाग की शैया बना कर सोते हैं।)
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नागेंद्र (संस्कृत)
नागेंद्र नागेंद्र
द्रनागें
द्रांगेन
ड्रागेन (अंग्रेज़ी)
द्रक्न (ग्रीक)
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मैं नींद से उठ बैठा। अभी सूरज नहीं उगा था। जागने
के बाद भी काफी देर तक मैं विष्णु जी के वही सपने में दिखे रूप में खोया रहा:
शान्ताकारम भुजग
शयनम, पद्मनाभम सुरेशम।
विश्वाधरम गगन सदृशम मेघ वर्णम शुभान्गम॥
सोचता रहा कि विष्णु जी कौन हैं? क्षीर-सागर में शेष-शैया पर सोने वाले कोई चमत्कारी अलौकिक भगवान, जो अगम, अगोचर, और अज्ञेय हैं? क्या भगवान विष्णु हम सब की तरह हाड़-मांस के बने
हमारे पुरखों में से कोई एक थे, जो वास्तव में
कभी इस धरती पर चलते-फिरते थे? क्यों न हम
पौराणिक कथाओं को मानव समाज और सभ्यता के विकास-क्रम की दृष्टि से देखे? मैं सोचता रहा कि क्या गलत उच्चारण से ‘क्षारी-सागर’ का ‘क्षीर-सागर’ बनने से क्षीर-सागर का मिथक उपजा? वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो क्षीर-सागर या दूध की झील तो हो नहीं सकती; क्षारी-सागर या खारी-झीलें तो पूरी दुनिया भर में हैं।
क्या एनाकोंडा पौराणिक शेषनाग हो सकता है? जीव-वैज्ञानिक दृष्टि से इस बात का कोई प्रमाण या संभावना नहीं है कि कोई
दस मुंह-वाला दैत्याकार जलचर नाग कभी इस धरती पर पाया जाता हो। हाँ, दस अनाकोंडाओं के दस-मुंह वाले मैथुन-लीन गुच्छे आधुनिक काल में भी हर वर्ष
एनकोण्डा के प्रजनन के मौसम में देखे जा सकते हैं। एनाकोंडाओं के यह गुच्छे इतने
बड़े होते हैं कि कोई भी मनुष्य उन पर लेट सकता है!
किसी भी पौराणिक गाथा का कोई ऐतिहासिक आधार खोजने
के लिए पुरातात्विक प्रमाणों की खोज आवश्यक है। उस दिशा में हम पूछते हैं कि विश्व
में विष्णु जी का प्राचीनतम चित्रण कहाँ किया गया है? हम देखते हैं कि विश्व में विष्णु जी की प्राचीनतम मूर्तियों में से एक
मूर्ति 7 वीं शताब्दी में चालुक्य काल में बनी थी। यह मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स
म्यूज़ियम में रखी हुई है। नीचे इसका छायाचित्र नीचे देखिये
[शेषशायीविष्णु,
प्लेट 103 (AWF) बलुआ पत्थर, हुच्छपाया मंदिर, अइहोल, दक्कन, चालुक्य काल।
7 वीं शताब्दी। प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़िसियम, मुंबई।
और साथ ही प्रोफ़॰ रिवास
का लिया हुआ एनाकोंडा मैथुन-गुच्छे का चित्र (नीचे)।
(www.anacondas.org/)
प्राचीन मूर्ति में शेषनाग की आकृति दस
एनाकोण्डाओं के मैथुन-गुच्छ के वास्तविक छाया-चित्र जैसी ही है। एनाकोंडा कभी फन
नहीं फैलता। प्राचीन मूर्ति में कोई भी फन फैला हुआ नहीं है। दसों एनाकोंडाओं में से प्रत्येक नाग का मुंह अलग
दिखाई दे रहा है।
इस प्राचीन मूर्ति के विपरीत शेष-शैय्या पर
विष्णु जी की नवीनतम मूर्तियों में से एक दिल्ली के इस्कॉन मंदिर में है (नीचे)।
दिल्ली के इस्कॉन मंदिर में शेष-शैया पर भगवान विष्णु की एक आधुनिक मूर्ति (ऊपर)
एक आधुनिक कलेंडर चित्र में शेष-शैया पर
भगवान विष्णु (ऊपर)
इस आधुनिक मूर्ति में और कलेंडर-चित्रों
में शेषनाग के अनेकों फन, काले नाग
(कोबरा) के फन की तरह फैले होते हैं। आधुनिक कलेंडर-चित्रों में शेषनाग का पूरा
शरीर भी सीधा होता है। हम पाते हैं कि जीवों के डीएनए, और भाषा के शब्द ही नहीं, समय के साथ चित्रों में भी क्रमिक म्यूटेशन होते
हैं!
अगर एनाकोंडा ही शेषनाग है तो यह जानना अति आवश्यक
है कि क्या कृषि-समाज के उद्भव के समय यानी 8000 वर्ष पहले भारत में एनाकोंडा या
उसके जैसे साँप थे? इसका उत्तर तो जीवाश्मों (फ़ोसिल) अवशेषों से ही
मिल सकता है। मार्च 2010 में भारतीय भूगर्भ सर्वे के डा॰ महाबे और मिशिगन
विश्वविद्यालय के डा॰ विल्सन ने खोज की कि करोड़ों वर्षों पहले गुजरात में 6.5 मीटर
(20 फीट) लंबा अनाकोंडा जैसा लंबा नाग रहता था जो डायनासोर के आधा मीटर लंबे नवजात
बच्चे खाता था। किन्तु अभी हम यह नहीं जानते कि ऐसे विशाल नाग भारत से किस काल में
लुप्त हुए?
अंत में रह गयी गरुड़ की बात। यह जानना भी
आवश्यक है कि क्या बैल जितने बड़े गरुड़ पक्षी, जिस पर बैठ कर उड़ा जा सके, कभी भारत में
पाये जाते थे? ऐसी संभावना होने के दो प्रमाण हैं। एक, ऋगवेद में मरुत वीरों के पक्षियों पर उड़ान का विवरण है। और दूसरा, यूरोपीय यात्री मार्को पोलो के 13 वीं शताब्दी में लिखे यात्रा-वृतांत। मार्को
पोलो ने भारत के समुद्र तट के साथ यात्रा की थी। अपने वृतांत में पोलो ने भारत में
10 फीट ऊंचे पक्षियों की बात की है। ऐसे बड़े पक्षी मडगास्कर में तो 19वीं शताब्दी
तक पाये जाते थे। अतः विष्णु जी जैसे पुरखों की गरुड़ पर उड़ान वैज्ञानिक दृष्टी से असंभव
नहीं है। लेकिन इसके विषय में विस्तार से फिर कभी, एक नए ब्लॉग-पोस्ट में, जिसमें केवल
चील, बाज़, गरूड, उल्लू और गीध पक्षियों पर चर्चा होगी। आज विकीपीडीया
में छपे, कुछ लुप्त हो गए सवारी-योग्य विशाल पक्षियों
का यह कार्टून देखिये।
यह आलेख आपको कैसा लगा? क्या पौराणिक कथाओं का इस तरह वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए? या फिर इन कथाओं को आस्था की बात मान कर उन पर कुछ नहीं सोचना चाहिए?
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